नई दिल्ली | केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने दायर हलफनामे में कहा है कि तीन तलाक की प्रथा न केवल विवाह जैसी सामाजिक संस्था के लिए हानिकारक है, बल्कि यह मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को भी अत्यंत दयनीय बनाती है। इस प्रथा को रोकने के लिए एक कड़े कानूनी प्रावधान की जरूरत थी ताकि मुस्लिम पतियों द्वारा अचानक तलाक देने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सके।
सरकार ने अदालत के सामने तर्क दिया, “अदालत को कानून बनाने का अधिकार नहीं है, यह विधायिका का कार्य है। कानून को परिभाषित करना और उसके तहत दंड विधान तय करना सरकार का मुख्य कार्य है।”
हलफनामे में यह भी कहा गया है, “तीन तलाक की पीड़ित महिलाओं के पास पुलिस के पास जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, और कानून में दंडात्मक प्रावधानों के अभाव के कारण पुलिस भी असहाय थी। इस प्रथा को रोकने के लिए यह कानून लागू किया गया था, ताकि मुस्लिम महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोका जा सके।”
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में तर्क दिया गया है कि शायरा बानो मामले के बाद तीन तलाक का कोई वैधानिक प्रभाव नहीं रह गया है, इसलिए इसे अपराध घोषित नहीं किया जा सकता। इसके जवाब में, केंद्र ने 2019 के मुस्लिम महिला (विवाह संरक्षण का अधिकार) अधिनियम के तहत दाखिल किए गए अपने हलफनामे में इस कानून की संवैधानिक वैधता का बचाव किया है।