नक्सलियों के खिलाफ आदिवासियों की दृढ़ता: हाल की मुठभेड़ का विश्लेषण
चार अक्टूबर को नारायणपुर और दंतेवाड़ा जिलों की सीमा पर अबूझमाड़ के जंगलों में हुई एक भीषण encounter में पुलिस ने 31 माओवादियों के मारे जाने का दावा किया है। वहीं, माओवादी प्रवक्ता ने इस encounter में 35 माओवादियों के मारे जाने की बात कही। यह मुठभेड़ पिछले चार दशकों में बस्तर में माओवादियों के खिलाफ सबसे बड़ी मुठभेड़ मानी जा रही है। उल्लेखनीय है कि 6 अप्रैल, 2010 को नक्सलियों के सबसे बड़े हमले में सुरक्षाबलों के 76 जवान शहीद हुए थे। इन दोनों घटनाओं के बीच एक गहरा अंतर्विरोध है, जो नक्सली समस्या की जटिलता को दर्शाता है।
नक्सलियों की कमजोरी
हालिया encounter में सुरक्षाबलों को कोई नुकसान नहीं हुआ, जो यह दर्शाता है कि आदिवासियों के बीच नक्सलियों का support कमजोर पड़ चुका है। पहले बड़े नक्सली हमलों के बाद हमेशा यह कहा जाता था कि नक्सलियों का intelligence तंत्र बहुत मजबूत है और उन्हें सुरक्षाबलों की हर गतिविधि की जानकारी रहती है। अब स्थिति इसके विपरीत हो रही है। बस्तर के दंतेवाड़ा और नारायणपुर जिलों के बीच अबूझमाड़, दोरनापाल, जगरगुंडा और बीजापुर तक सुरक्षाबल तेजी से पहुंच रहे हैं, जो नक्सलियों की कमजोर स्थिति का संकेत है।
आदिवासियों का चुनावी भरोसा
इस नई परिस्थिति में यह समझना आवश्यक है कि आदिवासी community ने पिछले कई दशकों में हुए लोकसभा और विधानसभा elections में नक्सलियों की चुनाव बहिष्कार की धमकी को बार-बार ठुकराया है। यह उनके democracy और संविधान के प्रति अटूट विश्वास को दर्शाता है। आदिवासी नेताओं जैसे जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में कहा था कि उनके समुदाय के साथ सबसे बुरा बर्ताव हुआ है और उन्होंने लोकतंत्र के प्रति आदिवासियों की गहरी आस्था को उजागर किया।
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सुविधाओं की कमी
हालांकि, बस्तर क्षेत्र में पिछले 70-80 वर्षों में यह देखा गया है कि सरकारी अमलों में बस्तर की posting को सजा के रूप में देखा जाता था। आज भी दुर्गम इलाकों में basic सुविधाएं जैसे सड़कें, शिक्षकों की कमी और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की अनुपस्थिति बनी हुई है। इन समस्याओं के कारण आदिवासी community विकास की मुख्यधारा से पीछे रह गया है। बैलाडीला की खदानों और स्टील संयंत्रों में आदिवासियों की स्थिति भी चिंतनीय है, खासकर वनाधिकार कानून के बाद।
सरकारी प्रयास और नक्सलियों का समर्पण
केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने माओवादियों के सफाए के लिए मार्च 2026 तक की डेडलाइन रखी है, जिससे यह स्पष्ट है कि सुरक्षाबलों की कार्रवाई में तेजी आएगी। हाल ही में छत्तीसगढ़ में बनी भाजपा सरकार ने नक्सलियों के समर्पण के लिए नई पुनर्वास policy की घोषणा की है। हालांकि, security forces और नक्सलियों के बीच की स्थिति को देखते हुए शांति वार्ता की संभावना कम ही दिखाई देती है।
वार्ता का अभाव
बस्तर की स्थिति पूर्वोत्तर के राज्यों में देखने को मिले अलगाववाद से भिन्न है। इसके बावजूद, केंद्र सरकार ने पूर्वोत्तर के अलगाववादियों के साथ शांति वार्ता की पहल की है, लेकिन माओवादियों के साथ ऐसी किसी पहल की कमी है। जबकि मोदी सरकार ने बोडो समूह के साथ त्रिपक्षीय समझौता किया है, माओवादियों के संदर्भ में ऐसा क्यों नहीं हो पाया, यह एक बड़ा सवाल है।
अधिकारों की पूर्ति
सुरक्षाबल माओवादी हिंसा को रोकने में मदद कर सकते हैं, लेकिन स्थायी शांति के लिए लोकतांत्रिक और constitutional मूल्यों की आवश्यकता है। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि बदलते बस्तर में आदिवासियों को उनके संवैधानिक अधिकार मिलें और उन्हें विकास के हिस्सेदार के रूप में देखा जाए, न कि केवल लाभार्थियों के रूप में।
महत्त्वपूर्ण कवि विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता के एक अंश में बस्तर के दर्द को बखूबी उजागर किया गया है, जिसमें कहा गया है कि एक अकेली आदिवासी लड़की को घने जंगल में जाने से डर नहीं लगता, लेकिन बाजार जाने में डर लगता है। यह बस्तर की वर्तमान स्थिति को दर्शाता है, जहां विकास और सुरक्षा के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है।