GST ट्रिब्यूनल ने हिंदी को ठुकराया, सिर्फ अंग्रेजी दस्तावेज स्वीकार
मध्य प्रदेश के प्रमुख शहर इंदौर में इस वक्त व्यापारियों के बीच हलचल मची हुई है। जीएसटी ट्रिब्यूनल द्वारा जारी एक फैसले ने पूरे व्यापारी समुदाय को हैरान कर दिया है। ट्रिब्यूनल ने अब कहा है कि इसके सामने प्रस्तुत होने वाले सभी दस्तावेज केवल अंग्रेजी भाषा में ही स्वीकार किए जाएंगे। यानी अब हिंदी में बने दस्तावेजों को मान्यता नहीं दी जाएगी और हिंदी दस्तावेजों को पहले अंग्रेजी में अनुवाद कराना होगा।
हिंदी की अनदेखी पर व्यापारी वर्ग में नाराज़गी
मध्य प्रदेश में हिंदी भाषा को आधिकारिक तौर पर बहुत महत्व दिया जाता है, लेकिन जीएसटी ट्रिब्यूनल के इस फैसले ने व्यापारी वर्ग के बीच चिंता और नाराज़गी पैदा कर दी है। व्यापारी इस फैसले को हिंदी को नजरअंदाज करने वाला कदम बता रहे हैं, जिससे स्थानीय भाषा की उपेक्षा हो रही है। खासकर छोटे और मझोले व्यापारियों के लिए यह फैसला न्याय प्रक्रिया को और जटिल और महंगा बना देगा।
न्यायिक प्रक्रिया महंगी और कठिन बनेगी
टैक्स पेशेवरों और चार्टर्ड अकाउंटेंट्स का मानना है कि ट्रिब्यूनल का यह कदम हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को न्यायिक प्रक्रिया से बाहर करने जैसा है। इससे आम व्यापारी या करदाता न्याय की प्रक्रिया से दूरी बनाएंगे क्योंकि अंग्रेजी दस्तावेजों के लिए अनुवाद करवाना अतिरिक्त खर्च और झंझट का कारण बनेगा। इससे छोटे व्यापारी न्याय तक पहुंचने में बाधा महसूस करेंगे।
GST लागू होते वक्त कई भाषाओं का वादा अधूरा
2017 में जब GST लागू किया गया था, तब सरकार ने इस सिस्टम को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने और इसे सरल बनाने के लिए कई भाषाओं में सेवा देने का वादा किया था। खासकर कर सलाहकारों ने बताया था कि GST पोर्टल लगभग 18 भाषाओं में काम करेगा ताकि देश के हर कोने के लोग आसानी से इसे समझ सकें। लेकिन आज तक यह वादा पूरा नहीं हो पाया है, जबकि ट्रिब्यूनल में हिंदी को भी मान्यता नहीं दी जा रही।
तीन भाषाओं में दस्तावेजों की स्वीकृति की मांग
कर विशेषज्ञ और चार्टर्ड अकाउंटेंट एसएन गोयल ने इस फैसले पर आपत्ति जताई है और कम से कम तीन भाषाओं—हिंदी, अंग्रेजी और स्थानीय क्षेत्रीय भाषा—में दस्तावेजों को मान्यता देने की मांग की है। उनका कहना है कि इससे न्याय की पहुंच आम जनता तक बेहतर होगी और कर विवादों का समाधान अधिक सरल होगा।
निष्कर्ष
जीएसटी ट्रिब्यूनल का यह फैसला व्यापारियों और करदाताओं के लिए एक बड़ा झटका है। हिंदी को अधिकारिक प्रक्रिया से बाहर करना न केवल भाषाई समानता के खिलाफ है, बल्कि यह न्यायिक प्रक्रिया को भी जटिल और महंगा बनाता है। इसके चलते मध्य प्रदेश सहित अन्य हिंदी भाषी राज्यों के व्यापारी अब अनुवाद की अतिरिक्त लागत और झंझट झेलने को मजबूर होंगे। समय की मांग है कि ट्रिब्यूनल अपनी इस नीति पर पुनर्विचार करे ताकि सभी भाषाओं को समान अधिकार मिल सके और न्याय की राह सबके लिए आसान बने।